पहचान खोने का दौर

पहचान खोने का दौर
पवन कुमार गुप्ता - http://www.sidhsri.info/Home.html


पवन जी एवं अनुराधा जी 
जनसत्ता 3 जून, 2012: पिछली सदी में हमारे यहां शिक्षा के क्षेत्र में जितने भी सोचने-समझने वाले लोग हुए- रवींद्रनाथ ठाकुर, कृष्णमूर्ति, श्रीअरविंद या महात्मा गांधी- वे विद्यार्थियों के बीच तुलना करने के विरोधी थे। सिर्फ शिक्षा नहीं, लगभग हर मामले में तुलना हानिकारक होती है- किसी को (व्यक्ति, तरीके, जीवन शैली, ज्ञान परंपरा आदि) जरूरत से ज्यादा उछालती है, उसे अहंकारी बनाती है तो किसी को नीचे गिरा कर हीन भावना पैदा करती है। ये सभी महानुभाव खुलापन, सहजता, विविधता के पक्षधर थे। तुलना सहजता की दुश्मन है। तुलना का भाव आते ही व्यक्ति अपनी सहजता खो देता है, अपने को दूसरों की नजरों से देखने लगता है। उसकी अपनी पहचान दूसरे की स्वीकृति पर निर्भर हो जाती है। एक तरह से अनजाने ही आदमी दूसरे का गुलाम बन जाता है।

तुलना को आधार बना कर जीने वाला व्यक्ति फिर गुरुदेव का ‘ऐकला चलो रे’ सिर्फ गा सकता है, वैसा जी नहीं सकता। गांधीजी की ‘अंतरात्मा की आवाज’- जिसके बल पर वे पूरी दुनिया के विरुद्ध जाने का साहस कर पाते थे- ऐसे लोगों के लिए पहेली जैसी होती है, जिस पर वे अधिक माथापच्ची करने से बचते हैं। ऐसे लोग लोकतंत्र की सिर्फ दुहाई दे सकते हैं, पर असल में सस्ती लोकप्रियता और अन्यों की स्वीकृति ही उनके लिए प्रेरक बनती है। ये लोग गहराई में सोचे बिना हर चीज का मूल्यांकन सिर्फ सतही ढंग से करके, लोगों को सही मायने में शिक्षित करके उनमें साहस भरने के बजाय, उन्हें बरगलाते हैं। कभी कार्टून बहाना बनता है, कभी कोई शब्द, कभी धर्म, कभी जाति। इन्हें फिर देश से ज्यादा झंडे की चिंता होती है, ये चिह्नों को ही वास्तविकता समझ बैठते हैं और तत्त्व की जगह प्रतीकों को सच मनाने लगते हैं। ये जल्दी में होते हैं।

जिस आधुनिकता में हम जी रहे हैं, उसमें तुलना की प्रवृत्ति को लगातार बढ़ाया जा रहा है। बाजार की संपूर्ण अर्थव्यवस्था इसी पर टिकी है। व्यक्ति की जरूरतों का आधार, शरीर की आवश्यकता नहीं, उसकी अपनी समझ नहीं, अंधाधुंध होड़ बनाई जा रही है। हर तथाकथित पढ़ा-लिखा दूसरों से होड़ करने के लिए शिक्षित किया जा रहा है। शिक्षित व्यक्ति में समझ नहीं पैदा की जा रही। अगर ऐसा होता तो उससे निरपेक्ष आत्मविश्वास आता। असल में आत्मविश्वास निरपेक्ष ही होता है, जो हर स्थिति-परिस्थिति में एक समान रहता है। आज जिसे हम आत्मविश्वास कह रहे हैं, वह निरपेक्ष नहीं सापेक्ष है। इसमें दूसरों से तुलना करके ही व्यक्ति अपना मूल्यांकन करता है और फिर या तो उसमें अहंकार आता है या वह सहम जाता है।
इस अहंकार को ही आत्मविश्वास कहा जा रहा है। उसका यह (सापेक्ष) आत्मविश्वास हर स्थिति-परिस्थिति में बदलता रहता है- आखिर सापेक्ष जो है- तुलना पर आधारित। आज की आधुनिकता ने बुद्धिमत्ता की परिभाषा भी ऐसी ही बना दी है। जो अपने को जितनी आसानी से स्थिति-परिस्थिति के अनुसार बदलता जाए, मुखौटा बदलता रहे, उसे अधिक बुद्धिमान माना जाता है। इसका चालू अर्थ यह लगाया जाता है कि अपने स्व को भूल कर, हर समय रंग बदलता रहे। ऐसे व्यक्ति को पहचानना, उस पर भरोसा करना मुश्किल होता है। हमारे यहां तो इससे अलग- हर परिस्थिति में जो एक जैसा रहे, स्थितप्रज्ञ- उसे ऊंचा समझा जाता था।

यह क्षण-क्षण बदलने की प्रवृत्ति इतनी हावी है कि हमारे हुक्मरान, जब अंग्रेज यहां आते हैं तो उनके सामने ब्रिटिश अंग्रेजी, जब अमेरिकी आते हैं तो अमेरिकी लहजे में अंग्रेजी और जब पाकिस्तान से लोग यहां आते हैं तो उर्दू बोलने का प्रयास करते हैं, यहां तक कि कपड़े वगैरह भी उन्हीं के मुल्कों के अनुसार पहनने की चेष्टा करते हैं। ऐसा करके हम अपनी हंसी ही उड़वाते होंगे। इसके विपरीत, महात्मा गांधी तो विदेश जा कर भी वही कपड़े पहने रहे, जो वे यहां पहनते थे।

जिसमें निरपेक्ष आत्मविश्वास होता है वह व्यक्ति अपने विवेक से अपने जीने और फैसले करने के आधार खुद तय करता है। आज जिस प्रकार की शिक्षा देकर हम लोगों को तैयार कर रहे हैं, उसमें इस तरह की कोई समझ दी ही नहीं जाती। पर असल में शिक्षा वह होती है जो व्यक्ति को प्रभाव-मुक्त करे, जो उसे निरपेक्ष आत्मविश्वास दे। पर हो यह रहा है कि छोटे से बड़ा- सभी प्रभावित होकर ही जी रहे हैं। दूसरे से प्रभावित, दूसरे से होड़ और दूसरे को पीछे छोड़ने की चाहत- इसी प्रवृत्ति को बढ़ाया जा रहा है। इसी रास्ते पर चलते हुए व्यक्ति अपनी पहचान खोज रहा है।

सब अलग होना चाहते हैं, कुछ नया करना चाहते हैं, पर रास्ता खुद तय नहीं करते क्योंकि होड़ करने वालों का रास्ता तो पहले से निर्धारित हो गया है- सवाल सिर्फ उस रास्ते में आगे या पीछे का होता है। शायद यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि अलग ‘होना’ नहीं अलग ‘दिखना’ और ‘दिखाना’ चाहते हैं। पश्चिम ने पिछले तीन-चार सौ बरसों में रास्ता तो तय कर रखा है- आधुनिक विकास का रास्ता। इसमें बुनियादी तौर पर नया कुछ भी नहीं। इस रास्ते में एकरूपता, हिंसा, अपने से कमजोर का शोषण, प्रकृति का दोहन, दिखावा, शब्द-जाल, आडंबर, नारेबाजी और प्रतीकों में जीना समाया हुआ है। अलग होने के लिए बड़ा सामाजिक लक्ष्य और उसमें निष्ठा की जरूरत होती है। उसके बाद उस रास्ते पर चलते हुए आप अलग दिख सकते हैं, पर आप इसलिए उस रास्ते पर नहीं चलते, क्योंकि आप अलग दिखना चाहते हैं।

आधुनिक विकास के रास्ते, साधारण की कोई जगह नहीं। अगर आप पढ़े-लिखे हैं तो कुछ अलग, कुछ विशेष हुए बिना आप कसमसाते रहेंगे। कर्तव्य और बड़े सामाजिक लक्ष्य को हासिल करने के सपने, अब नाम, पद और पैसा कमाने के सपने में तब्दील होकर रह गए हैं। हमारे सपने छोटे हो गए, फिर भी हम मानते हैं कि हमारा विकास हुआ है।
सभी सुखी होना चाहते हैं। पर सुख और होड़ के बीच के विरोधाभास को देखते ही नहीं। विशेष बनने की चाह- जो शिक्षा हममें भर रही है और जिसे हमारा नेतृत्व सर्वव्यापी करने पर तुला है- कभी हमें सुखी नहीं होने देगी। सुखी व्यक्ति वही हो सकता है, जिसे साधारण का महत्त्व समझ आए और वैसा बन कर वह जी पाए। सुखी समाज वह है जहां साधारण व्यक्ति सहज होकर जी सके, उसे इसकी छूट मिले।

साधारण और विविधता में मेल है। विविधता तभी पनप पाएगी जब समाज को एक ही रास्ते पर चलने को बाध्य नहीं किया जाएगा; जब अधिकार के नाम पर उसे बरगला कर उसकी विविधता पर चोट नहीं की जाएगी, जब साधारण की कद्र होगी। विविधता छबीस जनवरी की परेड में अलग-अलग झांकियां और लोक नृत्य दिखा कर नहीं बचाई जा सकती। उसके लिए शिक्षा को और सरकारी तंत्र को बदलना और ढीला करना होगा।

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