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धूप शर्माती है

धूप शर्माती है संकड़ी पतली उस गली से, जहां सूरज आने से डरता है ६ बाय ६ के इस घर में, जिसका फर्नीचर लकड़ी का एक फट्टा है गुल बिजली के उस खम्बे पे, घोड़े के चारे का जो अड्डा है नज़र अपने को बचाती है मैले भद्दे उस राह पे, जो पाक आशियानों का रस्ता है तारों के जंजाल से, घर-घर जिससे बसता है बिखरी उस दूकान में, चच्चा का चूल्हा जिससे जलता है घडी रुक जाती है शहाना की उस गुफा में, जहां खाना झुकके पकता है सुमैरा की उस दीवार पे, जिसपर थूक बरसों से बरसता है आज़ान के उस फरमान से, रहमत-ए-अल्लाह का जो रस्ता है धूप कितना भी शर्मा ले, नज़र बेशक अपने को बचा ले, घड़ी चाहे न चले पर कलम नहीं रुकती पर कलम नहीं रुकती कि छाँव मेरी सहेली है, नज़र से आंख मिंचोली खेली है, अतीत मुझे न पहेली है पर कलम नहीं रूकती कि रियाज़ मेरी जारी है, प्रयास मेरा भारी है, हंसी मेरी करारी है पर कलम नहीं रुकती कि सड़क के उस हाशिये पे, जहां दिल्ली ने मुझे फेंका है वह सड़क भी मेरी दिल्ली है, वह गटर भी मेरी दिल्ली है मैं खोयी पीढ़ी नहीं, कल का वर्तमान हूँ मातम का तर्जुमा नहीं,

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