धूप शर्माती है

धूप शर्माती है
संकड़ी पतली उस गली से, जहां सूरज आने से डरता है
६ बाय ६ के इस घर में, जिसका फर्नीचर लकड़ी का एक फट्टा है
गुल बिजली के उस खम्बे पे, घोड़े के चारे का जो अड्डा है

नज़र अपने को बचाती है
मैले भद्दे उस राह पे, जो पाक आशियानों का रस्ता है
तारों के जंजाल से, घर-घर जिससे बसता है
बिखरी उस दूकान में, चच्चा का चूल्हा जिससे जलता है

घडी रुक जाती है
शहाना की उस गुफा में, जहां खाना झुकके पकता है
सुमैरा की उस दीवार पे, जिसपर थूक बरसों से बरसता है
आज़ान के उस फरमान से, रहमत-ए-अल्लाह का जो रस्ता है

धूप कितना भी शर्मा ले,
नज़र बेशक अपने को बचा ले,
घड़ी चाहे न चले
पर कलम नहीं रुकती

पर कलम नहीं रुकती कि
छाँव मेरी सहेली है, नज़र से आंख मिंचोली खेली है, अतीत मुझे न पहेली है

पर कलम नहीं रूकती कि
रियाज़ मेरी जारी है, प्रयास मेरा भारी है, हंसी मेरी करारी है

पर कलम नहीं रुकती कि
सड़क के उस हाशिये पे, जहां दिल्ली ने मुझे फेंका है
वह सड़क भी मेरी दिल्ली है, वह गटर भी मेरी दिल्ली है

मैं खोयी पीढ़ी नहीं, कल का वर्तमान हूँ
मातम का तर्जुमा नहीं, आशा का फरमान हूँ
पीढ़ा की कोख में उपजी थी, बेतल खाई को राखी बाँधी है
हवा का पीछा करती थी, गरुड़ को धूल चटाई है

कलम नहीं रुकती
मगर, कागज़ क्यों अब भी कोरा है?
लाल स्याह निशान ने, क्यों मुझे बेरंग छोड़ा है?
अतीत का सर्वनाश तो, मेरे ही हांथों लिखा था,
अहम् के इस मायाजाल ने, मुझे ही क्यों झिंझोड़ा है?
मैं क्रान्ति की पुकार थी, ख़ामोश जलसों की ललकार थी
कुदरत ने मेरे ऐतबार में, क्यों काटों का मुखड़ा छोड़ा है?
ये क्या काल है जो मुझसे पूछ रहा है, मेरे लिबाज़ को नोच रहा है,
क्या तेरे इस विशाल मन में, पार्वती और काली साखी हैं?
क्या रेवा तट पर बैठ तू, हर सांस उसकी ले पाती है?
क्या रेवा तट पर बैठ तू, हर सांस उसकी ले पाती है?

क्या रेवा तट पर
बैठ तू,
हर सांस उसकी
ले पाती है
?
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यह कविता लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल की बस्ती में उन बच्चियों को समर्पित जो रोज़ मेरा मज़ाक  उड़ाती हैं, और उसी मज़ाक से न जाने क्या क्या सीखा जाती हैं। तुम्हे मेरा सलाम।

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